जिसको इस जगत में सबसे बड़ा कहा जाता है, सिर्फ वही अपने आप को जानता है.
इन शब्दों से भाव यह है कि, नानक जी इसमें कहते है, जिस परमात्मा का नाम हम लेते है, जिसका हम सुमिरन करते है, जिसके हम गुणों को गाते है, असल में उसे उन्हें बिलकुल भी नहीं जानते है. यानी कि हम उनके गुणों का व्याख्यान तो करते है लेकिन हम उन निर्गुण के गुणों को कैसे गा सकते है? क्यूंकि उनके गुणों को गाने कि हमारे पास तो समझ ही नहीं है. उनके गुण अनगिनत है, हम शब्दों द्वारा उनके गुण नहीं गा सकते, लेकिन हम सिर्फ कोशिश मात्र करते है, उनको गुणों को गाने की.
इस संपूर्ण संसार में सिर्फ वही परमात्मा स्वयं ही है जो स्वयं को जानते है.
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